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आत्मकथ्य : पत्रकार बनने का संघर्ष

विपरीत परिस्थितियों में भी मैंने हिन्दी से एम.ए करने के बाद सागर वि.वि. से जनसंचार एवं पत्राकारिता में बी.ए., एम.ए किया और वहाँ सपना जागा मीडिया में जाने का, क्लास में मुझे भरपूर प्रोत्साहन मिलता था, तब तक मेरी कई कविताएँ और लेख म.प्र. के प्रतिष्ठित पत्रा-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे, और लगातार आकाशवाणी छतरपुर, जबलपुर, सागर (म.प्र.) के केन्द्रों से मेरे कार्यक्रम प्रसारित हो रहे थे, और इसी बीच दमोह के स्थानीय अखबार में युवा एवं महिला मुद्दों पर लिखने के लिए एक ‘काॅलम’ दे दिया गया, लेकिन मुझे अपनी क्षमताओं से अपना आकाश कम लगा. और मैं 14 अक्टूबर 2002 को दमोह से राजधानी दिल्ली चली आई अकेले. आँखों में एक खूबसूरत सपना लिए ‘आज-तक’ में समाचार-वाचिका बनने का. और फिर सफर शुरू हुआ राजधानी से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तक का. इतना जुनून सवार था, इतना पागलपन था कि दिल्ली आने के बाद ‘आज-तक’ के आॅफिस में झंडेवालान रोज अपना सी.वी. लेकर चली जाती, और हर बार वहाँ से निराश ही लौटती, अबकी बार तो गार्ड ने गेट से ही भगा दिया. अब हैरान-परेशान सी वहीं बगल में ईटीवी में पहुँची अपना सी.वी. दिया और और चली आई, आज जिंदगी थकी-थकी सी लग रही थी, उदास तो थी पर टूटी नहीं. एक रोज, आज-तक में काम करने वाले मेरे अपने सहपाठियों से नाम और नं. लेकर फिर पहुँच गई, इस बार अच्छा स्वागत हुआ अंदर भी जाने दिया गया और लोगों ने अदब से बात भी की, पहली बार मैंने किसी चैनल के दफ्तर को इतने करीब से देखा था, आँखें चोधियाँ रही थीं. गाँव में देखा सपना पूरा होने की उम्मीद जाग गई थी. पर लम्बे इंतजार के बाद उन सभी ने कुछ-ना-कुछ बहाना बनाकर मिलने से मना कर दिया और मैं नम आँखों से लौटने लगी तो एक सज्जन ने मेरा सीं.वी.  ले लिया और कहा हम जल्द ही थ्डण् शुरू करने जा रहे हैं, आपकी आवाज अच्छी है आपसे संपर्क करेगे., तब सोचा चलो ठीक है, कम से कम यहाँ पैर रखने को जगह तो मिलेगी फिर धीरे-धीरे अपने अच्छे काम से, चेनल में आ जाऊँगी, पर दिन बीतते गए कोई खबर नहीं. इसके बाद जैने टी.वी, सहारा न्यूज चेनल एवं जी न्यूज पर निशाना साधा, वहाँ भी कई-कई दफा गई. दो-तीन दिनों के अंतराल में नोएडा चली जाती पर हर बार निराशा लेकर ही लौटती. लेकिन हर बार एक नई उम्मीद के साथ, वहाँ के लोगों के नाम, पते, और नम्बर इकट्ठे करती, और फिर रेंफरेस लेकर जाती. उससे बस इतनी सहूलियत होती थी., एक तो गेट पास मिल जाता और दूसरा अंदर वे लोग बायोडाटा रख लेते और सम्मान से पानी पिला देते. खैर... अब मन और सपनों का क्या करूँ. वे तो नहीं मानते थे, फिर एक रोज पहुँच गई ‘आज-तक’. अबकी बार बड़े और प्रतिष्ठित पत्राकार का नाम, पता व फोन न. (एक्सटेशन सहित) ले र्गइं थी, कईं घंटों इंतजार करने के बाद वे तो नहीं मिले, पर वहाँ मिल गया एक फ्रेशर जो अकसर मेरी इस जद्दोजहद को वहाँ देखता था. उसने बताया आपका यहाँ दिल्ली में न तो कोई गाॅडफादर है ना आपके पास कोई बड़ी एप्रोच और न ही पैसा तो आप सोच भी कैसे सकती हैं यहाँ जाॅब पाने की. आपको ट्रेनिंग या इनटरनेशिप पर भी नहीं लिया जायेगा, यहाँ आकर वक्त बरबाद ना किया करें, देखिए बेहतर होगा आप अपने शहर ही लौटकर वहाँ छोटे-मोटे चेनल्स में ट्राय करें... मेरी बातों का बुरा न मानना, यही जिंदगी की वास्तविकता है अंजना जी.“ और फिर चाय पिलाकर उस भले मानुष ने मुझे विदाकर दिया. भीगी-भीगी आँखों से अपने पहाड़ से सपने को अंदर दफ्न कर लौट आई... और कई दिनों तक तबियत कुछ नासाज रही... लगा ठीक ही तो कहा है उसने... कुछ भी तो नहीं मेरे पास... बस सिवाय  एक सपने के...  खैर अब इलेक्ट्रानिक मीडिया का भूत उतर चुका था. और जो रुपये लाई थी दमोह छोटी बहन के ससुराल द्वारा दी गई सोने की अँगूठी बेचकर व ट्यूशन पढ़ाकर वो भी खत्म हो चुके थे, पर हौसले अभी भी बुलंद थे. अब सोचा प्रिंट में ही किस्मत आजमा ली जाये, फिर शुरू हुआ सिलसिला दिल्ली के अखबारों और पत्रा-पत्रिकाओं के दफ्तरों में नौकरी तलाशने का... अपने प्रमाण-पत्रों की मोटी-मोटी फाइलों के साथ अपना बायोडाटा लिये दिन भर घूमती अखबारों के दफ्तरों में, कहाँ-कहाँ नहीं गयी, दै. जागरण (नोएडा), अमर उजाला, लोग नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, सभी जगह बायोडाटा ले लिया जाता और आने को कहा जाता, कई-कई दिन लगातार पहुँच जाती थी अपनी शकल दिखाने, उन्हें याद दिलाने, शायद आज बात बन जाये, पर नहीं कोई उम्मीद नहीं थी. म.प्र. के छोटे शहर से आई लड़की को कोई किस बेस पर ले, और क्यों लें? कई बार तो ऐसे सवालों से भी दो-चार होना पड़ता था कि आप क्या-क्या कर सकती हैं? कितना वक्त अधिक-से अधिक दफ्तर के बाहर दे पायेंगी?

एक रोज नटरंग प्रतिष्ठान गई. वहाँ काम था एक रु. की क्लिपिंग करने के 1 दिन के 30/-रु. मिलने थे, पर वहाँ तक आने-जाने का खर्च ही दिन के 60 रु था क्योंकि मैं हरियाणा के बार्डर पर रह रही थी. इसलिए फिर निराशा. खैर वहाँ से एक उम्मीद जरूर लेकर लौटी थी. ‘शिव खन्ना’ जी ने मुझे पत्रिकाओं में समीक्षाएँ लिखने का सजेशन दिया. तो अब मैंने हर पत्रिका के दफ्तर में चक्कर लगाना शुरू कर दिया, हंस, कादम्बिनी, आज-कल, आउटलुक, इंडियाटुडे, भाषा, इन्द्रप्रस्थ भारती, सभी जगह गई पर कई जगह, कल आना, परसों आना लगा रहा और एक-दो-जगह किताब मिली तो महीनों समीक्षा के छपने का इंतजार करती रही. फिर सोचा शायद मुझे ही लिखना नहीं आता खैर... वक्त में घाव भरने की असीम ताकत होती है और वहाँ मेरे कई सहपाठी विभिन्न चेनलों में अपना पैर जमा चुके थे, जिनके गाॅड फादर व मदर थे. उनके सपनों को पंख मिल गए थे, जब कभी बात होती तो वे हैरान-परेशान व दुखी ही दिखे. मीडिया में जाने के उनके सपने तो पूरे हो गए थे. पर उनका अपना अस्तित्व उनसे कोसांे दूर था. मेरी एक मित्रा ने बताया उसे दिन-रात समझौते करने पड़ते हैं. वह सिर्फ एक कठपुतली बनकर रह गई है. अब तो वह धीरे-धीरे पूरी प्रोफेशनल हो गई थी. पर उन सबकी अपनी पहचान खो चुकी थी... एक प्रतिष्ठित चैनल के संवाददाता आशीष का कहना हैµ ”सपना  देखना आसान है. लेकिन उन्हें साकार करना बेहद मुश्किल सपनों को पूरा करने के लिए कैसे सुख-आराम भूल जाना पड़ता है और किस तरह लगन से काम किया जाता है इसकी मिसाल है बड़े-बड़े पत्राकार जो आज एक-एक लाख सेलरी पा रहे हैं, भले ही उनके गाॅड फादर हैं पर उनकी अपनी क्षमता भी तो होती है.“ एफ.एम. में कार्यरत दिव्या बताती हैंµ ”बहुत मुश्किल है अपने सपनों को हकीकत में बदलना, पर अगर हमनें उन्हें पा भी लिया तो क्या हुआ. आज कितने लोग हमें जानते हंै? हमारे अपनी क्या पहचान है? हम तो नौकर हैं इस चैनल के. और आये दिन कई समझोते करने पड़ते हैं, मैं प्रड्यूसर बनना चाहती थी, बनकर रह गई मात्रा एक प्रोग्रामर.“ 

मैं आज फिर सोचती हूँ, मेरा मीडिया में जाने का सपना पूरा नहीं हुआ तो क्या हुआ, आज मेरा अपना एक मुकाम है, मेरा अस्तित्व है, अपनी एक अलग पहचान है, जो पहचान मैंने स्वयं अपने बुलंद हौसलों और अदम्य साहस से बनाई है.

जब उन दिनों की कशमकश के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि कितने मानसिक दबाव और जद्दोजहाद के बीच मैंने अपने सपनों को जिंदा रखा. दोस्तों और परिचितों के कितने उलाहने सुने पर अपना जुनून नहीं छोड़ा, अपना दृढ़ विश्वास नहीं टूटने दिया, लगन, कड़ी मेहनत, धैर्य, लक्ष्य पर नजर, काम के प्र्रति ईमानदारी, और आत्मविश्वास के सहारे संघर्षरत रही. अकेली अपने ही दम पर ना भावनात्मक सहयोग न आर्थिक सहयोग. लेकिन हाँ ताने व उलाहने जरूर सभी लोगों के साथ रहे. खैर ‘मेरे लिए तो हर सजा वरदान है. उसमें भी मैं कुदरत का शुक्र ही मनाती रही. उसने मुझे जिंदगी के हर रंग से नवाजा है. जब दिल्ली में इतना स्ट्रगल करने के बाद भी कोई बात नहीं बनी तो इसके बाद में चली गई रोहतक (हरियाणा) दीदी के पास. फिर वहाँ जाकर शुरू किया तलाशना और बहुत मेहनत के बाद  एचटी मीडिया में एक सर्वे करने और पाठकों को लेने के लिए उत्साहित करने की नौकरी मिल गई जो कि महज 45 दिनों का प्रोजेक्ट था., रोहतक से दूर बहादुर गढ़ एरिया दिया गया था मुझे. मैं रोज अप-डाउन करती. ट्रेन का पास भी बनवा लिया था और सारे बहादुरगढ़ में दिन भर घूम-घूमकर लोगों को क्रन्विस करती उस अखबार को लेने के लिए. मैं म.प्र. से आई थी बुंदेलखण्डी तो जानती थी. पर हरियाणा की बोली... से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वहाँ कई अन्य तरह की दिक्कतों से भी दो-चार होना पड़ा. खैर... पहले तो वहाँ की बोली सीखी और लोगों की मानसिकता को पढ़ना  जिंदगी ने सिखा दिया था. काम के दौरान कई खट्टे-मीठे अनुभव बटोर चुकी थी. और प्रोजेक्ट की मियाद पूरी हो गयी थी. रिपोर्ट समिट करने दिल्ली आना होता था. इसी बहाने नंदन, कादम्बिनी और हिन्दुस्तान में लगातार आपना बायोडाटा देती रही और नौकरी एवं समीक्षा के लिए गुहार लगाती रही... खैर... वहाँ कभी कोई बहाना, कभी कोई बहाना बताकर भगा दी जाती. उसके बाद ‘हरिभूमि’ हरियाणा (अखबार) में एक माह के लिए ट्रेनी जर्नलिस्ट (सेंट्रल डेस्क पर) रखा गया पर काम तीन माह तक किया और सीखा. कम्प्युटर से अखबार की सेंटिग व अखबार कैसे बनता व छपता है. वैसे तो पत्राकारिता की पढ़ाई के दौरान सभी कुछ सीखा ही था... पर ब्वउचनजमत पर डमी बनाकर सेंटिग करने में बड़ा अच्छा लगता था. रात को 9.10 बजा करते घर लौटते. कहा गया था एक माह बाद सेलरी दी जाएगी. पर काम करते दो- तीन माह हो गए थे. कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी... कि सेलरी मिलेगी.

मेरे सपनों ने मुझे फिर कुरेदना शुरू कर दिया. लगा हरियाणा में बैठकर तो कुछ हासिल नहीं होने वाला और वैसे भी कितना और सेलरी का इंतजार करती और कितना भागती हरियाणा से दिल्ली. रेल-पास खत्म हो चुका था जो 4000/µ कमाये थे एचटी से उसमें से कुछ जैसा माँ को दमोह भेज चुकी थी, इसी बीच कादम्बिनी के स्तंभ ‘नए पत्ते’ के लिए मेरी रचना एक बार फिर स्वकृत हुई जो कि रोहतक से भेजी गयी थी. सोचा चलो कादम्बिनी ही चलती हूँ शायद अब काम बन जाये, अगर एक किताब की समीक्षा छप जाये तो 150/µरु का इंतजाम हो जाएँगा. जिससे कुछ रोज और गुजर जायेंगे... खैर इसी बीच फिर से समीक्षा के लिए दौड़-भाग शुरू की. अबकी बार तीन माह के अनुभव का हवाला भी देती-फिरती. इसी तारतम्य में मैं पुनः पहुँची नोएडा एक प्रतिष्ठित अखबार के दफ्तर में इस. बार बहुत उम्मीदें लेकर गई थी. एक संघर्ष युवा उपसंपादक के पास और महिलाओं व लड़कियों के बारे में लिखने वाली व एक जोश भरा माहोल तैयार करने वाली युवा पत्राकार से मिलने. सोचा अपनी बात भी कहूँगी और कुछ लिखने के लिए स्वीकृति माँग लूँगी, पर वहाँ जाकर तो जैसे पाँव तले जमीन ही खिसक गई, वहाँ एक व्यक्ति को मिलकर अपना बायोडाटा जमा कराने के लिए कहा गया. जब मैंने अपना बायोडाटा देते हुए उन्हें बताया कि मैं अंजना हूँ दमोह (म.प्र.) से. मेरी योग्यता ये... है मेरा काम लेखों की कंटिंग्स और अपनी-मोटी-मोटी प्रमाण-पत्रों व सम्मान पत्रों से भरी चारों फाइलें उनके आगे कर दीं तो... उस सज्जन ने पहले तो ऊपर से नीचे तक मुझे निहारा. फिर मेरा बायोडाटा लेकर उसकी पुड़िया बनाकर कचरे की टोकरी में डाल दी. और मुस्कुराते हुए मुझसे कहा दमोह से यहाँ आने की आपको क्या जरूरत थी अपना सी.वी. वहीं से पोस्ट कर देती. आये-दिन ऐसे कई लोग गाँव-देहात से चले आते हैं. उन्होंने मेरा बायोडाटा ना देखा था ना पढ़ा बस देखते ही पुड़िया बनाकर कचड़े की टोकरी में डाल दिया था. बस फिर क्या था, मेरे आँसू वहीं खड़े-खड़े बह निकले और अपनी दोनांे चोटियों को संभालते हुए एक हाथ से आँसू पोंछती और एक हाथ से अपनी मोटी-मोटी फाइलों को संभालती फिर जब वहीं सामने थोड़ी दूर पर लगे सोफे पर बैठकर उस युवा पत्राकार का इंतजार करने लगी तो देखा उसी सज्जन के पास दो नवयुवक आये, बाल व दाढ़ी बढ़ी हुई, कुर्ता और जींस पहने थे तब सीट पर बैठे महोदय उठकर खड़े हो गए. उन दोनों से हाथ मिलाया उन्हें चाय पिलाई और कुछ वक्त बाद वे दोनांे लड़के भी मेरे बगल में सोफे पर आकर बैठ गए, किसी और के इंतजार में. मेरे मन में कौतुहल तो था ही कि इनमें ऐसा क्या खास है जो इनका ऐसा स्वागत? खैर... उनसे मैंने वक्त पूछा तो हमारे बातचीत हुई, उन दोनों ने बताया’ वी आर रिर्सच स्कालर इन जेएनयू और काम के सिलसिले में एडिटर से मिलने आए हैं. पर सी.वी इन महोदय को ही जमा करने को कहा गया था. अब कुछ देर बाद एडीटर से मिलना है. तब मेरे मन में प्रश्न यह उठा सिर्फ जेएनयू में पढ़ने से इतनी तबज्जो मिलती है तो फिर मुझे जेएनयू के बारे में और जानना होगा. और उसी वक्त मैंने ठान लिया था. मेरा अब सिर्फ एक ही सपना होगा वह है जेएनयू का ऐंट्रन्स पास करना. कुछ न कुछ डिफरेंस तो है यहाँ के छात्रों में तभी तो उठकर सम्मान दिया जाता है. चाय भी पिलाई जाती है इन्हें. खैर राह बहुत कठिन थी. मैं छोटे शहर से आई थी. अंग्रे्रजी भी अच्छी नहीं थी. कंप्टीशन भी जेएनयू में बहुत तगड़ा था, खैर इस अद्भुत सपने को अंजाम तो देना ही था, अब एक नया जोश व पागलपन सवार हो गया था किसी भी कीमत पर जेएनयू का ऐंटरेन्स पास करके यहीं एम. फिल और पी- एच. डी. करनी है. मित्रों और रिश्तेदारों ने खूब मजाक बनाया. तू देहातन कैसे पास करेगी जेएनयू का टेस्ट. यहाँ कठिन है तेरे लिए परीक्षा देना. कैसे तैयारी होगी, कौन मार्गदर्शन करेगा? जेएनयू में ही उस वक्त पी-एच.डी. कर रहे मेरे एक तथाकथित मित्रा ने तो यह तक कह दिया कि ‘क्यों मेरी भद् पिटवाने पर तुली हो. जेएनयू में सलेक्शन बच्चों का खेल नहीं. और फिर सीटें भी उस वक्त कुल सात थीं एम. फिल हिन्दी अनुवाद में. खैर... निशाना साधकर कड़ी मेहनत व लगन के साथ मैं तमाम छोटी-मोटी  नौकरियों के लिए इंटरव्यू व टेस्ट देती रही और रिजेल्ट की प्रतीक्षा करने लगी... और देखने लगी साथ ही जेएनयू में पढ़ने के सपने, और जवानी में देखा पीएच.डी करने का, किसी बड़े व प्रतिष्ठित संस्थान में पढ़ने का सपना भी पूरा होता नजर आने लगा था.

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